गुरुवार, 23 फ़रवरी 2023

दो पहियों पर पूर्वोत्तर : दूसरा चरण : पहला पड़ाव : शिलापठार

तो मित्रों, भारत यात्रा के दूसरे चरण में आपका स्वागत है। आप सभी को पिछले चरण का वर्णन और संबन्धित फोटो और वीडियो पसंद आए इसके लिए आप सभी का धन्यवाद। तो मैं दूसरे चरण की योजना बना कर तैयार हो गया था और सबसे बड़ी बात ये थी कि इस यात्रा में मुझे एक साथी के रूप में अर्जुन मिल गया था। हमें डिब्रूगढ़ पहुंचना था। अब मैं दिल्ली में था और अर्जुन गाँव में, तो तय हुआ कि अर्जुन ट्रेन से जाएगा और मैं दिल्ली से फ्लाइट पकड़ूंगा। अर्जुन एक दिन पहले पहुंच कर बेताल को कलेक्ट करेगा, आवश्यक रिपेयरिंग कराएगा और मेरे डिब्रूगढ़ पहुंचते ही हमारी यात्रा प्रारंभ हो जाएगी। मैंने ये भी तय किया कि इस बार कहीं भी होटल में नहीं रूकना है बल्कि टेंट का सदुपयोग किया जाएगा।  (अपनी मोटरसाइकिल होंडा यूनीकार्न 150 सीसी का नाम मैंने बेताल रखा है।) 

तो योजनानुसार अर्जुन समय से डिब्रूगढ़ पहुंच तो गया मगर बजाय बेताल को लेने के श्रीमानजी अपने किसी पड़ोसी से मिलने शिलापठार चले गए और अगले दिन का सदुपयोग स्थानिय घुमक्कड़ी के लिए कर लिए। जिस दिन मुझे डिब्रूगढ़ पहुंचना था उस दिन अर्जुन बेताल को लेने निकला। मैं करीब बारह बजे डिब्रूगढ़ उतरा लेकिन अब समझ में नहीं आ रहा था कि अब कहाँ जाएं क्योंकि अर्जुन बेताल को लेने डिब्रूगढ़ से करीब पचास साठ कीलोमीटर दूर गया हुआ था। उपर से जब रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट से बाहर निकलो तो आटो टैक्सी वाले ऐसे हमला करते हैं कि उसे देख कर सेना भी शर्मा जाय। उनकी शानदार व्यूह रचना से निकलना एक प्रोजेक्ट ही हो जाता है। जैसे तैसे बाहर निकल कर बगल में रामबाड़ी बाजार पहुंचा और एक छोटे से रेस्तरां में चावल, मछली और आलू भुजिया का शानदार लंच किया और प्रतीक्षा करने लगा। 

अर्जुन को बेताल ले कर आते आते रात के सात बज गए और पूर्वोत्तर में शाम के सात बजने का मतलब दिल्ली के नौ समझ सकते हैं। उस समय बेताल के रिपेयरिंग की कोई संभावना नहीं थी सो उसी समय बोगीबिल पुल पार किया और शिलापठार के लिए निकल पड़े। करीब ड़ेढ़ घंटे में अर्जुन के उसी पड़ोसी के घर पहुंचे जिनका जिक्र ऊपर आया है। उस सज्जन ने बड़े प्रेम से हमें भोजन कराया और सोने की भी व्यवस्था की।  अगले दिन की कथा अगले भाग में। 

तब तक के लिए जै जै

सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

दो पहियों पर पूर्वोत्तर : आखिरी पड़ाव : डिब्रूगढ़

 आज मेरी यात्रा का अंतिम दिन था। योजना थी कि सुबह सुबह शिव सागर में रंगघर देख कर चराईदेव के पिरामिड देखे जाएं और वहां से डिब्रूगढ़ चला जाए। इसलिए  सुबह सुबह उठकर  होटल से चेक आउट करके मैं रंगघर की तरफ बढ़ गया। आगे बढ़ते हुए एक बोर्ड नजर आया "राजभोग होटल" और साथ में नजर आए शीशे मे कैद समोसे, कचौड़ी और जिलेबी। उनको शीशे में कैद देख कर बहुत दुख हुआ। मैं दुकान में पहुंचा कुछ पैसे खर्च किए और यथाशक्ति समोसों कचोरियों और जलेबी को कैद से मुक्ति दिलाई। उसके पश्चात प्रसन्नवदन मैं रंग घर पहुंचा। रंग घर का गेट कोई बहुत विशाल नहीं है लेकिन उसके ऊपर दोनों तरफ दो सुनहरे ड्रैगन बने हुए हैं। भारतीय परंपराओं में कहीं मुझे ड्रैगन देखने को तो नहीं मिले लेकिन शायद चीन की नजदीकी का प्रभाव हो कि वहां ड्रैगन बने हुए थे। अपनी मोटरसाइकिल को किनारे खड़ा कर टिकट खिड़की की तरफ बढ़ गया। भारतियो के लिए टिकट दस रूपए का था जबकि विदेशियों के लिए ढाई सौ का। टिकट लेते हुए बगल में लगे एक शिलापट्ट पर मेरी निगाह पड़ी जिसमें यह बताया गया था कि रंगघर परिसर के पार्क के रिनोवेशन के बाद उसका उद्घाटन वहां के तत्कालिक साज्यसभा सांसद और पूर्व केन्द्रिय वित्त मंत्री सरदार मनमोहन सिंह ने किया था। प्रधानमंत्री इसलिए नहीं क्योंकि उस समय अटल जी प्रधानमंत्री थे। तब कोई सोच भी नही सकता था कि उनके भाग्य में छींका टूटने वाला है और वो अगले प्रधानमंत्री बनने वाले हैं। अंदर घुसते ही एक तरफ पत्थर पर रंगघर का नक्शा बना हुआ था और साथ में उसका इतिहास भी लिखा था। अब मैं क्या इतिहास के चक्कर में पड़ूं आप खुद ही चित्र में पढ़ लीजिए। सामने विशाल घास का मैदान था और बीच में मुख्य भवन तक जाने के लिए रास्ता बना हुआ था। लाल रंग का दो मंजिला मुख्य भवन मैदान के ठीक बीचोबीच खड़ा था। मैं सीधा उसी तरफ लपका। मुख्य भवन अजीबोगरीब तरीके से अष्टकोणिय बना हुआ है और दोनों ही मंजिलों पर बाहर देखने के लिए बड़े-बड़े दरवाजे और झरोखे बने हुए हैं जो कि खेल तमाशा देखने के समय उपयोगी सिद्ध होते होंगे। ऊपर की मंजिल पर जाने के लिए बाई तरफ से सीढ़ियां बनी हुई हैं। ऊपर के सभी झरोखों को सुरक्षा की दृष्टि से जंगले लगाकर बंद कर दिया गया है। भवन की छत उल्टे नाव के आकार की है जिसके ऊपर दो मगरमच्छ दोनों तरफ  सिर उठाए तैनात हैं। दोनों  के बीच एक तीन गुंबद वाला शिखर है। घूम कर मुख्य भवन के सारे कोने खुदरों का निरीक्षण करने के पश्चात  मैंने पार्क पर ध्यान दिया। यह पार्थ कभी मैदान हुआ करता होगा जहां पर अलग-अलग तरह के खेल तमाशे हुआ करते होंगे और राजा, राजपरिवार और उनके दरबारी  रंग घर में बैठकर उस का आनंद लेते होंगे। उन खेल तमाशों को प्रदर्शित करने के लिए पार्क में अलग-अलग जगहों पर  खेल तमाशे की मूर्तियां लगी है। जैसे कहीं कुश्ती लड़ते पहलवानों की मूर्ति है तो कहीं आपस में लड़ते हुए भैंसों की! अंदर पार्क में ही एक  शिलापट्ट  लगा दिखा जिसके अनुसार रंग घर का सारा रखरखाव एएसआई के निर्देशन में ओएनजीसी अपने खर्चे पर करती है। रंग घर को जी भर के देखने के बाद मैं चराईदेव के लिए निकला। शिवसागर से चराई देव की दूरी लगभग 30 किलोमीटर है। मैंने गूगल मैप्स को वहां का रास्ता बताने के लिए निर्देशित किया और मोटरसाइकिल पर सवार होकर चल पड़ा। अब तक तो मैं नेशनल हाईवे पर चल रहा था पर अब पहली बार नेशनल हाईवे छोड़कर स्थानीय सड़कों पर चलना शुरू किया और यहीं पर मुझे असली ग्रामीण असम दिखना शुरू हुआ। छोटे-छोटे बांस के घर। दोनों तरफ ढेर सारे सुपारी के पेड़, ढेर सारे तालाब और धान के खेत। इन दृश्यों का का आनंद लेते हुए लगभग 1 घंटे में में चराई देव पहुंचा। यहां के पिरामिड भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित स्थान हैं। इन्हें पिरामिड तो हम कह रहे हैं स्थानीय तौर पर इनका नाम मैदम है। यह भीड़भाड़ से दूर एक छोटी सी जगह थी। एक कोने में पार्किंग थी और आसपास खाना खाने के लिए दो छोटे-छोटे होटल थे। टिकट की कीमत यहां भारतीयों के लिए ₹25 और विदेशियों के लिए ₹300 थी। एक बात अच्छी लगी कि यहां सार्क देशों के निवासियों के लिए भी टिकट दर भारतीयों के समान ही अर्थात ₹25 ही थी। टिकट काउंटर पर एक उंघता हुआ आदमी बैठा हुआ था जिस से टिकट लेकर मैंने अंदर प्रवेश किया। अंदर घुसते ही बाई तरफ एक बोर्ड पर इस जगह का इतिहास खुदा हुआ था। किन राजाओं ने इसका निर्माण कराया और कौन लोग यहां पर सो रहे हैं उनके बारे में जानकारी थी। सारे पिरामिड हरी भरी घास से हुए है और उनके बीच आवागमन के लिए कंक्रीट की पगडंडियाँ बनी हुई हैं यहां पर जो भी जनता आई हुई थी उनमें से कोई भी पुरातत्व मैं दिलचस्पी रखने वाला नहीं था। लगभग सभी नई उम्र के युवक युवतियां थे जो इस स्थान का उपयोग मिलन स्थल के तौर पर कर रहे थे। पूरा अंदर जाने पर एक पिरामिड खुदा हुआ मिला जिसके अंदर जाने की मनाही थी। राम जाने अंदर से क्या निकला होगा और उसको कहां रखा गया होगा। जहां खुदाई हुई थी वहां दरवाजे के दोनों तरफ 20 20 फीट मोटी दीवारें दिख रही थी और दरवाजे के ऊपर गोल गुंबद दिख रहा था। यदि ठीक से खुदाई हो तो यहां काफी कुछ मिल सकता है। अधिकांश ग्रामीणों के चारों तरफ एक अष्टकोणिय चारदीवारी थी जो कि लगभग दो फुट ऊंची थी। उसका भी रखरखाव ठीक से ना होने से उस पर का मसाला झड़ रहा था और कहीं कहीं तो उसमें पेड़ भी उग आए थे। चूंकि वहां पर देखने को बहुत ज्यादा नहीं था नहीं था और अधिकांश पिरामिड मिट्टी के नीचे दबे हुए थे तो जल्दी ही मैं वहां से निकल लिया क्योंकि अगले दिन सुबह दस बजे डिब्रूगढ़ से मेरी ट्रेन थी और आज रात की डिब्रूगढ़ में ही मेरी मेरे रिटायरिंग रूम में बुकिंग थी। सो आज डिब्रूगढ़ पहुंचना आवश्यक था। फिलहाल मेरे पास अभी बहुत समय था लेकिन रुकने का कोई लाभ नहीं था इसलिए गूगल महाराज को डिब्रूगढ़ का रास्ता बताने के लिए कह कर उनके अनुसार हम चल पड़े। कच्ची पक्की सड़कों से होते हुए छोटे बड़े गांव से और बाजारों से निकलते हुए मैं डिब्रूगढ़ की तरफ बढ़ा। एक जगह तो बांस के पुल से नदी भी पार करनी पड़ी और उसके लिए ₹10 चुकाने पड़े। रास्ते में एक जगह रुक कर एक सज्जन से कच्ची सुपारी भी ली क्योंकि मैंने कभी पेड़ से तोड़ी हुई हरी सुपारी नहीं देखी थी। जिन सज्जन ने मुझे दिया उन्होंने बताया कि कच्ची सुपारी में नशा बहुत ज्यादा होता है इसलिए मैं खाने की जहमत ना उठाऊं। वैसे भी मेरा खाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था क्योंकि मैं पान कुछ विशेष मौकों को छोड़ दें तो लगभग नहीं ही खाता हूं। फिर एक जगह बाजार में रुक कर 1 किलो छिलके समेत पक्की सुपारी भी खरीदी। सुपारी को नारियल का मिनी वर्जन समझ लीजिए। जो सुपारी हम पान में खाते हैं या पूजा में उपयोग करते हैं वह अंदर की गिरी होती है। उसके ऊपर नारियल की तरह ही जटाएं होती है जो कि साफ करके बेची जाती है। बीच में एक छोटी सी जगह पर रुक कर मैंने भोजन भी किया। चावल दाल सब्जी और साथ में पोर्क! सच में मजा आ गया। मेरी मोटरसाइकिल का अगला ब्रेक तो पहले से ही खराब चल रहा था। अब पिछला ब्रेक भी बहुत ढीला हो गया था जो कि बहुत धीरे-धीरे लग रहा था। मुख्य सड़क पर आने के बाद मेरे आगे एक व्यक्ति दाहिनी तरफ का इंडिकेटर जलाकर मुड़ने लगा लगा और मेरी ब्रेक नहीं लगी और जाकर मैंने उसको जोरदार टक्कर मारी। फलस्वरूप दोनों ही जमीन पर मोटरसाइकिल समेत फैल गए। आसपास के लोगों ने जल्दी से हमें उठाया। बावजूद इसके कि सारी गलती मेरी थी वह शख्स ज्यादा नाराज नहीं हुआ सिर्फ इतना कहा कि मुझे ब्रेक बनवा कर चलना चाहिए था। मेरे जिरह बख्तर पहनने के कारण मुझे कोई चोट नहीं लगी। वहां से आगे बढ़ने पर जो रिपेयरिंग की पहली दुकान दिखी वहीं पर मैंने ब्रेक टाइट करवा लिए। शाम के लगभग 5:00 बजे तक मैं डिब्रूगढ़ स्टेशन पहुंच गया। जिस मित्र को मोटरसाइकिल देनी थी वह भी 10 से 15 मिनट बाद आ गए और मुझसे मोटरसाइकिल और सारे कागज जांच करने के बाद ले लिए और चले गए। मैं रिटायरिंग रूम में  चेक इन करने के लिए  इंक्वायरी काउंटर पर पहुंचा। वहां पर जो सज्जन थे वह संयोग से हमारे ही जिले अर्थात देवरिया जिले के निकले। बड़े प्रेम से मिले  कागजी खानापूर्ति की और मुझसे कहा कि आपकी बुकिंग रात को 8:00 बजे से है और आजकल हमारे यहां बहुत जांच चल रही है इसलिए मैं आपको अभी रूम में नहीं जाने दे सकता। मैंने भी कहा कि क्यों नियम तोड़ना! बस मेरा सामान अपने पास रख लीजिए और मैं डिब्रूगढ़ सिटी में जाता हूं। वहां खाना भी खा लूंगा और कुछ खरीदारी भी कर लूंगा। आखिर इतनी लंबी सोलो ट्रिप करने के बाद पत्नी के लिए कुछ तो ले जाना बनता था। स्टेशन बिल्कुल शहर से बाहर था और वहां से बाजार लगभग 6 किलोमीटर दूर था। स्टेशन के बाहर शेयर्ड ऑटो चल रहे थे। मैं उससे थाना चरियाली (असम में चरियाली चौराहे को कहते हैं) पहुंचा। वहां पर एक अच्छा सा रेस्टोरेंट देखकर भोजन किया और घर के लिए या दूसरे शब्दों में कहें तो पत्नी के लिए अलग-अलग तरह की तीन चार पैकेट चाय ले ले ली। फिर लगभग चार किलोमीटर पैदल चलकर खुद के लिए पत्नी के लिए और बच्चों के लिए जापी (असम का मशहूर बांस का हैट) खरीदा। वापस स्टेशन आने के लिए शेयर्ड ऑटो नहीं मिले इसलिए एक ऑटो  हायर करना पड़ा। वापस स्टेशन आकर अपने रूम में सो गया और अगली सुबह अवध आसाम एक्सप्रेस पकड़कर अपने गांव की तरफ चल पड़ा। तो मित्रों इस चरण के साथ ही मेरा भारत भ्रमण शुरू हो चुका है। जल्दी ही दोबारा आऊंगा और अगले चरण में मेरा लक्ष्य पूरा अरुणाचल प्रदेश घूमने का होगा। तब तक के लिए जै जै! 

ये असम वाले धान को अजीब तरीके से काटते हैं। पौधे को आधी लंबाई से काट कर उसका गट्ठर बना लेते हैं और उसे बचे ठूंठ पर उल्टा रख देते हैं।

बांस का पुल

सुदूर असम के घोर देहाती क्षेत्र में छठ घाट देख कर बहुत खुशी हुई

पेड़ पर लटकी सुपारी

इन सज्जनों से ही कच्ची सुपारी ली

अपने दरवाजे पर एक क्यूट बच्चा

रंगघर का मुख्यद्वार




रंगघर









मैदम (पिरामिड) का मुख्यद्वार


ढेर सारे छोटे मैदम

खुदा हुआ मैदम



बाहरी दीवार और उसमें उगा पेड़





शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

दो पहियों पर पूर्वोत्तर : सातवां पड़ाव : शिबसागर

आज सुबह सुबह मैं जल्दी उठा ताकि काजीरंगा नेशनल पार्क में हाथी बुकिंग कर सकूं। होटल वाले ने मुझे रात में ही बता दिया था कि हाथियों की एडवांस बुकिंग चलती है। लेकिन अगर जल्दी जाएं और किस्मत साथ दे तो मिलने की संभावना बन सकती है। सफारी जीप के मुकाबले हाथी पर बेहतर होती है क्योंकि हाथी पर जानवरों के दिखने की संभावना अधिक होती है। मैंने मोटरसाइकिल उठाई और पूछता हुआ स्थानीय सफारी बुकिंग ऑफिस में पहुंचा। वहां जाकर पता चला कि ऑफिस साढ़े छः बजे खुलता है और अभी छः बज रहे थे। बगल में ही स्थानीय लोग छोटे-छोटे स्टाल लगाकर नाश्ता बेच रहे थे। मैंने भी पूरी छोले आमलेट का नाश्ता कर लिया। वहां पर ढेर सारे सफारी जीप वाले अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। इसी बीच एक विदेशी जोड़ा भी आया और ऑफिस खुलने की प्रतीक्षा करने लगा। पौने सात में लोग लाइन लगाने लगे तो मैं भी जाकर लाइन में लग गया। एक जीप में कुल 6 व्यक्ति बैठ सकते थे और किराया अलग अलग जोन के लिए अलग अलग था। मुझे अच्छा नहीं लग रहा था कि मैं अकेले अपने लिए पूरी जीप हायर करूं, लेकिन और कोई रास्ता भी नहीं था। लाइन में मेरे आगे वह विदेशी जोड़ा था। बुकिंग क्लर्क समझदार था। उसने मुझे उस विदेशी जोड़े के साथ एडजस्ट कर दिया जिससे कि मुझे एक तिहाई ही किराया देना पड़ा। पूछने पर पता चला कि वह जर्मनी के जैक और लीना डेकट हैं। हमने बुकिंग क्लर्क की सलाह पर वेस्टर्न रेंज का ट्रिप बुक कर लिया। मैंने मोटरसाइकिल वहीं बुकिंग ऑफिस के बगल में पार्क कर दी और जीप में सवार हो गया। सुबह सुबह का समय था। हल्की हल्की ठंड थी।लेकिन जब जीप चल पड़ी तो ठंड से मेरी हालत खराब होने लगी और थोड़ी ही देर में मैं बुरी तरह से कांपने लगा। मुझे लगा था कि सफारी में गाड़ी की गति 20 के ऊपर नहीं होगी इसलिए हवा से ठंड नहीं लगेगी। लेकिन जो बात मुझे नहीं पता थी वह यह थी कि सफारी के प्रवेश द्वार बुकिंग कार्यालय से काफी दूरी पर थे। लगभग 10 किलोमीटर तक मुझे ऐसे ही ठिठुरते हुए यात्रा करनी पड़ी। उसके बाद गाड़ी प्रवेश द्वार पर पहुंची और वहां पर वाहन चालक महोदय ने गाड़ी को लाइन में खड़ा कर दिया और खुद कार्यालय में औपचारिकताएं पूरी करने चले गए। हम लोग वहीं पर खड़े खड़े बातें करते रहे और आसपास के नज़ारे देखते रहे। बिल्कुल दिल्ली के इंडिया गेट टाइप का माहौल बना हुआ था। एक से एक नमूने इकट्ठा हुए पड़े थे। कुछ हाथी, हाथी पर चढ़ने की कोशिश कर रहे थे तो कुछ गधे जीप पर चढ़कर शोर मचा रहे थे। मैंने गधा इसलिए कहा क्योंकि जीव अभयारण्य में शोर नहीं मचाना चाहिए। थोड़ी देर में वाहन चालक महोदय जरूरी औपचारिकताएं पूरी कर के आए और हमने काजीरंगा नेशनल पार्क में प्रवेश किया। जंगल में प्रवेश करते ही सबसे पहले हमारा सामना पालतू हाथियों के झुंड से हुआ जिनको जिनको वनरक्षक लेकर जंगल के अंदर गश्त लगाने जा रहे थे। झुंड में वयस्क हाथियों के अलावा दो बड़े प्यारे छोटे छोटे बच्चे भी थे। आगे बढ़ने पर थोड़ी देर में ही घना जंगल शुरू हो गया। सुबह-सुबह काफी घना कोहरा भी छाया हुआ था इसलिए बहुत कम दूरी तक दिखाई दे रहा था। मन में निराशा हो रही थी कि कोहरे में दूर स्थित जीव जंतु कैसे दिखाई देंगे। लेकिन इस मामले में हम कुछ नहीं कर सकते थे। जंगल में सबसे पहले हमें रंग बिरंगे जंगली मुर्गे के दर्शन हुए। वह पगडंडी के बिल्कुल बगल में ही था इसलिए उसकी अच्छी तस्वीरें आईं। उसके बाद सफेद और काले गर्दन वाले सारस के दर्शन हुए। लेकिन निगाहें कभी उस जानवर को खोज रही थी जिसके लिए काजीरंगा नेशनल पार्क मशहूर है, अर्थात एक सींग वाला गैंडा। हमें बहुत ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। थोड़ा आगे जाते ही पगडंडी से लगभग सौ मीटर की दूरी पर एक मादा गैंडा अपने बच्चे के साथ घास चरती नजर आई। बहुत ज्यादा कोहरे के कारण तस्वीरें अच्छी नहीं आई लेकिन इतने बड़े जानवरों को उनके प्राकृतिक परिवेश में देखना ही बहुत ही आनंदायक था। गैंडे आराम से चर रहे थे और बगुले मजे से उनकी सवारी कर रहे थे। थोड़ा आगे जाने पर जंगली सूअर की एक झलक मिली। अब कोहरा साफ हो चला था और दृश्यता काफी बढ़ गई थी। आगे दलदली इलाके में पहुंचे जहां पर काफी सारे जल पक्षी दिखाई दिये। एक किंगफिशर झाड़ी के ऊपर शिकार की ताक में घात लगाए बैठा था तो एक पनडुब्बी पानी के अंदर से मछली का शिकार करके केवल अपनी गर्दन पानी के ऊपर निकालकर खा रही थी। शरीर पानी के अंदर होने के कारण ऐसा लग रहा था जैसे कोई सांप मछली खा रहा हो। थोड़ा आगे बढ़ने पर जंगली भैंसों का एक झुंड नजर आया। जंगली भैंसे बहुत खतरनाक होते हैं। इनके झुंड  पर हमला करने से शेर भी डरता है। झुंड में काफी बच्चे भी थे। इन काले काले भैसों के बच्चे हल्के सुनहरे रंग के होते हैं और जैसे-जैसे आयु बढ़ती है ये काले होते जाते हैं। इनसे थोड़ी ही दूर पर एक जंगली सूअर पूरे शान से भोजन की तलाश में जुटा हुआ था। जीप के पास आने पर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ा जिससे हमें फोटो लेने का अच्छा मौका मिल गया। का जीरंगा अपने big4 अर्थात 4 बड़े जानवरों के लिए प्रसिद्ध है। अब तक हम इनमें से हाथी गैंडा और जंगली भैंसा, इन तीन के दर्शन कर चुके थे।  केवल एक बाघ के दर्शन करने ही रह गए थे। पूरी सफारी खत्म होने तक बाघ महाशय ने दर्शन नहीं दिए। लगभग दस बजे हम सफारी से बाहर निकले। मेरा इरादा दोपहर बाद यहां से निकलने का था क्योंकि आज केवल शिवसागर पहुंचना था जो कि लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर की ही दूरी पर था। चुंकि मेरे पास समय था और जैक और लीना तो आए ही घूमने थे सो हमने सेन्ट्रल रेंज का भी एक ट्रिप बुक कर लिया। सेंट्रल रेंज में हमने कछुए, जंगली हाथी, बाज, नीलकंठ, और भी ढेर सारे गैंडे और बहुत ही प्रकार के जल पक्षी देखे। जंगली और पालतू हाथियों में अंतर करने का  एक बहुत ही आसान तरीका हमारे वाहन चालक ने बताया। उसने बताया जो हाथी काले दिखें  वह पालतू होते हैं और जो शरीर पर मिट्टी और कीचड़ की वजह से भूरे दिखें वह जंगली होते हैं। वह इसलिए क्योंकि पालतू हाथियों की नियमित रूप से साफ सफाई की जाती है। बाघ महाशय को तो न दिखना था न दिखे। सेंट्रल रेंज के अंत में जंगली भैंसों का एक बहुत बड़ा झुंड हमारे बहुत पास से गुजरा जिससे बाघ न दिखने का दुख थोड़ा कम हो गया। वेस्टर्न रेंज पूरा करते-करते बारह बज गए और भूख बहुत जोर की लगने लगी। हमने एक साथ भोजन किया फिर दोनो मित्रों से विदा लेकर अपनी यात्रा पर आगे बढ़ा। शिवसागर पहुंचने तक शाम के सात बज गए थे। अपनी पूरी यात्रा का सबसे साफ सुथरा और सबसे सस्ता होटल मुझे शिव सागर में ही मिला इसलिए कोई मोल भाव किए बिना रूम ले लिया। थोड़ी देर आराम करने के पश्चात बाहर निकला और मछली भात खा कर वापस आया। आज के चित्र आप पिछली पोस्ट में देख चुके हैं फिर भी बिना फोटो के पोस्ट अच्छी नहीं लगती इसलिए कुछ तस्वीरें लगा दे रहा हूँ।
बुकिंग ऑफिस के पीछे चाय बगान


बस स्टाइल मार रहा हूँ

सेंट्रल रेंज में प्रवेश


शान की सवारी

नीलकंठ

आज के मित्र

जंगली हाथी

बायसन


बायसन के बच्चे

शिकार की तलाश में

घात लगाए किंग फिशर

सफारी को तैयार हाथी




ड्यूटी पर.........